श्री आरती-संग्रह

।।श्रीहरि:।।

नम्र निवेदन

संस्कृत और हिन्दी में आरती के अनेक पद प्रचलित है। इन प्रचलित पदों में कुछ तो बहुत ही सुन्दर और शुद्ध हैं, कुछ में भाषा तथा कविता की दृष्टि से न्यानाधिक भूलें हैं, परन्तु भाव सुन्दर हैं तथा उनका पर्याप्त प्रचार है। अत: उनमें से कुछ का आवश्यक सुधार के साथ इसमें संग्रह किया गया है। नये पद भी बहुत- से हैं। पूजा करने वालों को इस संग्रह से सुविधा होगी, इसी हेतु से यह प्रयास किया गया है। इसमें भगवान् के कई स्वरूपों तथा देवताओं की आरती के पद हैं। आशा हैं, जनता इससे लाभ उठायेगी।


आरती क्या है और कैसे करनी चाहिये ?


आरती को ‘आरात्रिक’ अथवा ‘आरार्तिक’ और ‘नीराजन’ भी कहते हैं। पूजा के अन्त में आरती की जाती है। पूजन में जो त्रुटि रह जाती है, आरती से उसकी पूर्ति होती हैं। स्कन्दपुराण में कहा गया है-


मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत् कृतं पूजनं हरे:।
सर्वं सम्पूर्णतामेति कृते नीराजने शिवे।।


‘पूजन मन्त्रहीन और क्रियाहीन होने पर भी नीराजन (आरती) कर लेने से उसमें सारी पूर्णता आ जाती है।’
आरती करने का ही नही, आरती देखने का भी बड़ा पुण्य लिखा है। हरि भक्ति विलास में एक श्लोक है-


नीराजनं च य: पश्येद् देवदेवस्य चक्रिण:।
सप्तजन्मनि विप्र: स्यादन्ते च परमं पदम्।।


‘जो देवदेव चक्रधारी श्रीविष्णुभगवान् की आरती (सदा) देखता है, वह सात जन्मों तक ब्राह्मण होकर अन्त में परमपद को प्राप्त होता है।’
विष्णु धर्मोत्तर में आया है-

धूपं चारात्रिकं पश्येत् कराभ्यां च प्रवन्दते।
कुलकोटि समुद्धृत्य याति विष्णो: परं पदम्।।


‘जो धूप और आरती को देखता है और दोनों हाथों से आरती लेता है, वह करोड़ पीढ़ियों का उद्धार करता है और भगवान् विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है।’

आरती में पहले मूलमन्त्र (जिस देवता का जिस मन्त्र से पूजन किया गया हो, उस मन्त्र) के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल, नगारे, शंख, घड़ियाल आदि महावाद्यों के तथा जय-जयकार के शब्द के साथ शुभ पात्र में धृत से या कपूर से विषम संख्या की अनेक बत्तियाँ जलाकर आरती करनी चाहिये-

तत्श्च मूलमन्त्रेण दत्वा पुष्पांजलित्रयम्।
महानीराजनं कुर्यान्महावाद्यजयस्वनै:।।
प्रज्वलयेत् तदर्थं च कर्पूरेण घृतेन वा।
आरार्तिकं शुभे पात्रे विषमानेकवर्तिकम्।।

साधारणत: पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे ‘पंचप्रदीप’ भी कहते हैं। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है। कपूर से भी आरती होती है। पद्मपुराण में आया है-

कुंकुमागुरुकर्पूरघृतचन्दननिर्मिता:
वर्तिका: सप्त वा पंच कृत्वा वा दीपवर्त्तिकाम्।।
कुर्यात् सप्तप्रदीपेन शंखघण्टादिवाद्यकै:।

‘कुंकुम, अगर, कपूर, घृत और चन्दन की सात या पाँच बत्तियाँ बनाकर अथवा दिये की (रुई और घी की) बत्तियाँ बनाकर सात बत्तियों से शंख, घण्टा आदि बाजे बजाते हुए आरती करनी चाहिये।’
आरती के पाँच अंग होते हैं-

पंच नीराजनं कुर्यात् प्रथमं दीपमालया।।
द्वितीयं सोदकाब्जेन तृतीयं धौतवाससा।।
चूताश्चत्थादिपत्रैश्च चतुर्थं परिकीर्तितम्।
पंचमं प्रणिपातेन साष्टांकेन यथाविधि।।


‘प्रथम दीपमाला के द्वारा, दूसरे जलयुक्त शंख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, चौथे आम और पीपल आदि के पत्तों से और पाँचवें साष्टांग दण्डवत् से आरती करे।’
‘आरती उतारते समय सर्वप्रथम भगवान् की प्रतिमा के चरणों में उसे चार बार घुमाये, दो बार नाभि देश में, एक बार मुख मण्डल पर और सात बार समस्त अंगों पर घुमाये’-

आदौ चतु: पादतले च विष्णो-
र्द्वौ नाभिदेशे मुखबिम्ब एकम्।
सर्वेषु चांग्ङेषु च सप्तवारा-
नारात्रिकं भक्तजनस्तु कुर्यात्।।


यथार्थ में आरती पूजन के अन्त में इष्ट देवता की प्रसन्नता के हेतु की जाती है। इसमें इष्ट देव को दीपक दिखाने के साथ ही उनका स्तवन तथा गुणगान किया जाता है। आरती के दो भाव है जो क्रमश: ‘नीराजन’ और ‘आरती’ शब्द से व्यक्त हुए हैं। नीराजन (नि:शेषेण राजनम् प्रकाशनम्) का अर्थ है- विशेष रूप से, नि:शेष रूप से प्रकाशित हो उठे चमक उठे, अंग-प्रत्यंग स्पष्ट रूप से उद्भासित हो जाय जिसमें दर्शक या उपासक भलीभाँति देवता की रूप-छटा को निहार सके, हृदयंगम कर सके। दूसरा ‘आरती’ शब्द (जो संस्कृत के आर्तिका प्राकृत रूप है और जिसका अर्थ है- अरिष्ट) विशेषत: माधुर्य- उपासना से संबंधित है। ‘आरती वारना’ का अर्थ है- आर्ति-निवारण, अनिष्ट से अपने प्रियतम प्रभु को बचाना।

इस रूप में यह एक तांत्रिक किया गया है, जिससे प्रज्वलित दीपक अपने इष्ट देव के चारों ओर घुमाकर उनकी सारी विघ्र-बाधा टाली जाती है। आरती लेने से भी यही तात्पर्य है- उनकी ‘आर्ति’ (कष्ट) को अपने ऊपर लेना। बलैया लेना, बलिहारी जाना, बलि जाना, वारी जाना, न्योछावर होना आदि सभी प्रयोग इसी भाव के द्योतक हैं। इसी रूप में छोटे बच्चों की माताएँ तथा बहिनें लोक में भी आरती (या आरत) उतारती हैं। यह ‘आरती’ मूलरूप में कुछ मन्त्रोंच्चारण के साथ केवल कष्ट-निवारण के भाव से उतारी जाती रही होगी। आजकल वैदिक-उपासना में उसके निवारण के भाव से उतारी जाती रही होगी। आजकल वैदिक-उपासना में उसके साथ-साथ वैदिक मन्त्रों का उच्चारण होता है तथा पौराणिक एवं तान्त्रिक-उपासना में उसके साथ सुन्दर-सुन्दर भावपूर्ण पद्य-रचनाएँ गायी जाती हैं। ऋतु, पर्व, पूजा के समय आदि भेदों से भी आरती की जाती है।

Friday, April 23, 2010

आरती


आरती हिन्दू उपासना की एक विधि है। इसमें जलती हुई लौ या इसके समान कुछ खास वस्तुओं से आराध्य के सामाने एक विशेष विधि से घुमाई जाती है। ये लौ घी या तेल के दीये की हो सकती है या कपूर की। इसमें वैकल्पिक रूप से, घी, धूप तथा सुगंधित पदार्थों को भी मिलाया जाता है। कई बार इसके साथ संगीत (भजन) तथा नृत्य भी होता है। मंदिरों में इसे प्रातः, सांय एवं रात्रि (शयन) में द्वार के बंद होने से पहले किया जाता है। प्राचीन काल में यह व्यापक पैमाने पर प्रयोग किया जाता था। तमिल भाषा में इसे दीप आराधनई कहते हैं।
सामान्यतया पूजा के अंत में आराध्य भगवान की आरती करते हैं। आरती में कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें सम्मिलित होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें तीन बार पुष्प अर्पित करने चाहियें। इस बीच ढोल, नगाडे, घड़ियाल आदि भी बजाये जाते हैं।[१]

     
                                                                       विधि
आरती करते हुए भक्त के मान में ऐसी भावना होनी चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि भक्त अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारती कहलाती है। आरती प्रायः दिन में एक से पांच बार की जाती है। इसे हर प्रकार के धामिक समारोह एवं त्यौहारों में पूजा के अंत में करते हैं।एक पात्र में शुद्ध घी लेकर उसमें विषम संख्या (जैसे ३, ५ या ७) में बत्तियां जलाकर आरती की जाती है। इसके अलावा कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं।[२] आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरी धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग (मस्तिष्क, हृदय, दोनों कंधे, हाथ व घुटने) से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती मानव शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक मानी जाती है।[१]


आरती की थाली या दीपक (या सहस्र दीप) को ईष्ट देव की मूर्ति के समक्ष ऊपर से नीचे, गोलाकार घुमाया जाता है। इसे घुमाने की एक निश्चित संख्या भी हो सकती है, व गोले के व्यास भी कई हो सकते हैं। इसके साथ आरती गान भी समूह द्वारा गाय़ा जाता है जिसको संगीत आदि की संगत भी दी जाती है। आरती होने के बाद पंडित या आरती करने वाला, आरती के दीपक को उपस्थित भक्त-समूह में घुमाता है, व लोग अपने दोनों हाथों को नीचे को उलटा कर जोड़ लेते हैं व आरती पर घुमा कर अपने मस्तक को लगाते हैं। इसके दो कारण बताये जाते हैं। एक मान्यता अनुसार ईश्वर की शक्ति उस आरती में समा जाती है, जिसका अंश भक्त मिल कर अपने अपने मस्तक पर ले लेते हैं। दूसरी मानयता अनुसा ईश्वर की नज़र उतारी जाती है, या बलाएं ली जाती हैं, व भक्तजन उसे इस प्रकार अपने ऊपर लेने की भावना करते हैं, जिस प्रका एक मां अपने बच्चों की बलाएं ले लेती है। ये मात्र सांकेतिक होता है, असल में जिसका उद्देश्य ईश्वर के प्रति अपना समर्पण व प्रेम जताना होता है।
                                                         
                                                           थाल
आरती का थाल धातु का बना होता है, जो प्रायः पीतल, तांबा, चांदी या सोना का हो सकता है। इसमें एक गुंधे हुए आटे का, धातु का, गीली मिट्टी आदि का दीपक रखा होता है। ये दीपक गोल, या पंचमुखी, सप्त मुखी, अधिक विषम संख्या मुखी हो सकता है। इसे तेल या शुद्ध घी द्वारा रुई की बत्ती से जलाया गया होता है। प्रायः तेल का प्रयोग रक्षा दीपकों में किया जाता है, व आरती दीपकों में घी का ही प्रयोग करते हैं। बत्ती के स्थान पर कपूर भी प्रयोग की जा सकती है। इस थाली में दीपक के अलावा पूजा के फ़ूल, धूप-अगरबत्ती आदि भी रखे हो सकते हैं। इसके स्थान पर सामान्य पूजा की थाली भी प्रयोग की जा सकती है। कई स्थानों पर, विशेषकर नदियों की आरती के लिये थाली की जगह आरती दीपक प्रयोग होते हैं। इनमें बत्तियों की संख्या १०१ भी हो सकती है। इन्हें शत दीपक या सहस्रदीप भी कहा जाता है। ये विशेष ध्यानयोग्य बात है, कि आरती कभी सम संख्य़ा दीपकों से नहीं की जाती है।

                                                           सामग्री का महत्व
आरती के समय कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। पूजा में न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे धार्मिक एवं वैज्ञानिक आधार भी हैं।[१][२][२]
• कलश : कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। मान्यतानुसा इस खाली स्थान में शिव बसते हैं। यदि आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि भक्त शिव से एकाकार हो रहे हैं। समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।
• जल : जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। जल को शुद्ध तत्व माना जाता है, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।
• नारियल : आरती के समय कलश पर नारियल रखते हैं। नारियल की शिखाओं में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार पाया जाता है। जब आरती गाते हैं, तो नारियल की शिखाओं में उपस्थित ऊर्जा तरंगों के माध्यम से कलश के जल में पहुंचती है। यह तरंगें काफी सूक्ष्म होती हैं।
• सोना : ऐसी मान्यता है कि स्वर्ण धातु अपने आस-पास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा फैलाता है। इसीलिये सोने को शुद्ध कहा जाता है। यही कारण है कि इसे भक्तों को भगवान से जोड़ने का माध्यम भी माना जाता है।
• तांबे की मुद्रा : तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता अन्य धातुओं की अपेक्षा अधिक होती है। कलश में उठती हुई लहरें वातावरण में प्रवेश कर जाती हैं। कलश में पैसा डालना त्याग का प्रतीक भी माना जाता है। यदि कलश में तांबे के पैसे डालते हैं, तो इसका अर्थ है कि भक्त में सात्विक गुणों का समावेश हो रहा है।
• सप्तनदियों का जल : गंगा, गोदावरी, यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरी और नर्मदा नदी का जल पूजा के कलश में डाला जाता है। सप्त नदियों के जल में सकारात्मक ऊर्जा को आकृष्ट करने और उसे वातावरण में प्रवाहित करने की क्षमता होती है। क्योंकि अधिकतर योगी-मुनि ने ईश्वर से एकाकार करने के लिए इन्हीं नदियों के किनारे तपस्या की थी।
• पान सुपारी : यदि जल में सुपारी डालते हैं, तो इससे उत्पन्न तरंगें रजोगुण को समाप्त कर देती हैं और भीतर देवता के अच्छे गुणों को ग्रहण करने की क्षमता बढ जाती है। पान की बेल को नागबेल भी कहते हैं।नागबेलको भूलोक और ब्रह्मलोक को जोड़ने वाली कड़ी माना जाता है। इसमें भूमि तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है। साथ ही, इसे सात्विक भी कहा गया है। देवता की मूर्ति से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा पान के डंठल द्वारा ग्रहण की जाती है।
• तुलसी : आयुर्वेद में तुलसी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। अन्य वनस्पतियों की तुलना में तुलसी में वातावरण को शुद्ध करने की क्षमता अधिक होती है।

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